04 April, 2009
आध्यायत्मिक रूप से संसार मे मानवो की दो प्रजातियॉ निर्धारित की गयी है,एक सुर कही जाती है और दूसरी असुर कही जाती है,असुर वर्ण आश्रम संस्कार मर्यादाओ नीति अनीति से परे होते है,इनपर कोई बन्धन प्रभाव कारी नही होता है,जब की सुर इन सभी बन्धनो से आव़त्त होते है,इन बन्धनो को असुर वाळय वन्धन कहते है ,जब की सुर के लिये ये आन्तरिक होते है, वर्ण को ही ले इस सम्बन्ध मे हमारे समाज मे बहुत सी रितियॉ कुरितियॉ है,इस सम्बन्ध मे श्रीमद भागवत गीता मे श्री क़ष्ण ने कहा है कि चारो वर्ण की रचना मैने गुण और कर्मके आधार पर किया है,गुण का निर्धारण भाव के आधार पर होता है जैसा भाव होता है वैसा ही गुण विकसित होता है ,मन मे यदि त़ष्णा का भाव है तो परोपकार का गुण विकसित नही हो सकता है,ओर यदि सदगुणो का विकास नही है तो सदकर्मो की अपेक्षा व्यर्थ है, ओर यदि मानव मे गुण और कर्मो का अभाव है तो वह वर्ण व्यवस्था के किसी सोपान मे नही आता अर्थात वह असुर है, वर्ण व्यवस्था मे सबसे पहली सीढी आती है सूद्र की विना इस सीढी पर चढे कोईभी मानव इस व्यवस्था की अन्य सीढीयो को प्राप्त नही कर सकता है,इसका गुण है सीखना और भाव है सेवा भाव यह सभी जड चेतन की सेवा करता है,और इस सेवा से वह जिन गुणो का संचय करता है वह संचय उसे वैश्य श्रेणी मे स्वत लेकर जाते है,वैष्य के पास मानवीय गुणो का भण्डार होता है औ जब वह उन गुणो का प्रयोग कर रहा होता है तो वह क्षत्रिय की अवस्था मे होता है,क्षत्रिय वही होता है जो प्रतेक दशा मे अपने अन्दर संचित मानवीय मूल्यो को लागू करता है,स्वयं केलिए भी और दूसरे के लिए भी यह तपस्या की अवस्था होती है, यदि वह इस पर विजय प्राप्त कर लेता है तो बा्ळमणत्व ही अवस्थाअ मे आ जाता है वह ब्राळमण कहलाता है , यह सुरो की वर्ण व्यवस्था है ,जो पूर्ण तया आन्तरिक होती है इसके अतिरिक्त जो भी व्यवस्था प्रचलित है वह असुरो की वर्ण व्यवस्था है , जो आलोच्य है और विभेद कारी है,,